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कविता

सहानुभूति

हरिओम राजोरिया


दुनिया दो हिस्सों में कहाँ बँटी है
समरसता की भले थोड़ी सी कमी है
तुम दूसरे हिस्से में रहते हो
अँधेरी गलियों में बसर करते हो
इस अंधकार से हमें सहानुभूति है

तुम्हारी खटिया से ए लुटिया से
बछिया से ए टटिया से
तरह-तरह की विचित्र चीजों से
काले-काले खेतों में उपजे बीजों से
तुम्हारी हार से ए उधार से
तुम्हारे जीने के अधिकार से
हमें बहुत गहरी सहानुभूति है

देखिए जी ! पाप इस कदर बढ़ा है
देश किस मुकाम पर आकार खड़ा है
पर काम में लगे काम के लोगों से
ठेके की खेती से
ठेके की मजूरी से
गाँव ए खेड़ा ए देहात से
हाट से ए बाजार से
आदमी पर पड़ती मार से
हमे सहानुभूति ही सहानुभूति है


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